Tuesday, September 29, 2009

आपकी ओर से पहली

हजारों की भीड़ में अनजान हूँ मैं,
गौर से देखो, तुम्हारी ही तरह इंसान हूँ मैं,
मौजों की लहरें इस दिल में भी उठती हैं,
दोस्त मेरे, दिल का बड़ा कद्रदान हूँ मैं.

नाम-ओ-शोहरत किसी को भी मिल जाती है,
पर, शुकूँ दिल का सबको ही मिलता ही नहीं.
दिल की सुनने का जज्बा है जिस वीर में,
काँटों की राह चलने से डरता नहीं.

कारवाँ ज़िन्दगी का गुजर जायेगा
ज़माने के रंगों में रंगते हुए,
रंज-ओ-ग़म ये मगर फिर रहेगा सदा
ज़िन्दगी को कभी खुद से जी न सके.
-आशीष तिवारी
 

कुछ मेरा भी

मुझ अकेले की तख्लीक़ है ये नहीं,
तेरी सूरत तो खालिक़ की रेहमत रही|
उसपे सीरत तेरी दिल मे अज-हद-ख़ुशी,
जिसमे डूबी सी भीगी सी ये शायरी ||
-प्रियंक
तख्लीक़ - Creation; खालिक़- Creator 

Monday, September 28, 2009

शिवओम अम्बर संचालन

उमर का और प्रतिभा का सगा नाता नहीं कोई |
हमेशा दर्द गाता है आदमी गाता नहीं कोई ||

सियासत के प्रवक्ता रोज़ लय सुर ताल बदलेंगे,
कहीं चेहरा कहीं चिंतन कहीं पे चाल बदलेंगे |
कभी पगड़ी बदल लेंगे कभी रूमाल बदलेंगे,
मिले कुर्सी तो अपनी वल्दियत हर साल बदलेंगे ||

कहीं ऐसा ना हो धैर्य के हिमखंड गल जाएँ,
सहज शालीनता के स्वर शरारों मे बदल जाएँ |
जिन्हें विद्वेष वन्दे-मातरम से है,
हमारे गाँव की सीमा से खुद बाहर निकल जाएँ ||

या बदचलन हवाओं का रुख मोड़ देंगे हम,
या खुद तो वाणीपुत्र कहना छोड़ देंगे हम |
जिस दिन भी हिचकिचाएंगे लिखने में हकीक़त,
कागज़ को फाड़ देंगे कलम को तोड़ देंगे हम ||

Sunday, September 27, 2009

भूख और कला

भूख की कुटनी कला की कुलवधू को,
नग्नता की हाट में बिठला रही है|
फिर कहीं से दर्द के सिक्के मिलेंगे,
ये हथेली आज फिर खुजला रही है ||

-शिवओम अम्बर

खुद्दारी

समय ने जब भी अंधेरों से दोस्ती की है, 
जला के अपना ही घर हमने रौशनी की है |
सुबूत है मेरे घर में धुँए के ये धब्बे, 
अभी अभी यहाँ पे उजालों ने खुदकुशी की है ||
-गोपाल दास नीरज़

नंदन जी

वांची तो थी मैंने खंडहरों में लिखी हुई इबारत,
लेकिन मुमकिन कहाँ था उतना उस वक़्त ज्यों का त्यों याद रखना |
और अब लगता है कि बच नहीं सकता मेरा भी इतिहास बन जाना,
कि वांचा तो जाऊंगा पर जी नहीं पाउँगा ||

नदी कि कहानी कभी फिर सुनाना, मैं प्यासा हूँ दो घूंट पानी पिलाना|
मुझे वो मिलेगी ये मुझको यकीं हैं, बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना ||
मुहब्बत का अंजाम हरदम यही था, भंवर देखना कूदना डूब जाना |
ये तनहाईयाँ-याद भी-चाँद भी, गज़ब का वजन है संभल के उठाना ||
नदी कि कहानी कभी फिर सुनाना, मैं प्यासा हूँ दो घूंट पानी पिलाना|



Saturday, September 26, 2009

गुलजार की नज्में

आदतन तुमने कर दिए वादे, आदतन हमने ऐतबार किया |
तेरी राहों में बाराहा रुक कर, हमने अपना ही इंतज़ार किया |
अब ना मांगेंगे ज़िन्दगी या रब, ये गुनाह हमने एक बार किया ||

क्या बताएं कि जान गयी कैसे, फिर से दोहराएँ वो घडी कैसे |
किसने रास्ते में रखा था चाँद, मुझको वहां ठोकर लगी कैसे ||
-गुलजार