Sunday, September 27, 2009

नंदन जी

वांची तो थी मैंने खंडहरों में लिखी हुई इबारत,
लेकिन मुमकिन कहाँ था उतना उस वक़्त ज्यों का त्यों याद रखना |
और अब लगता है कि बच नहीं सकता मेरा भी इतिहास बन जाना,
कि वांचा तो जाऊंगा पर जी नहीं पाउँगा ||

नदी कि कहानी कभी फिर सुनाना, मैं प्यासा हूँ दो घूंट पानी पिलाना|
मुझे वो मिलेगी ये मुझको यकीं हैं, बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना ||
मुहब्बत का अंजाम हरदम यही था, भंवर देखना कूदना डूब जाना |
ये तनहाईयाँ-याद भी-चाँद भी, गज़ब का वजन है संभल के उठाना ||
नदी कि कहानी कभी फिर सुनाना, मैं प्यासा हूँ दो घूंट पानी पिलाना|



No comments:

Post a Comment