ज़िन्दगी से कभी हमने माँगी न थी
शान-ओ-शौकत या के मिलकियत ख़्वाब की
क्या पता था हमें वो भी दिन आयेगा
ज़िन्दगी खुद फ़कीरों में होगी खड़ी.
सर झुका के हमेशा मैं चलता रहा
भीड़ के घुंघरुओं की मधुर ताल पर
क्या पता था नज़र ये उठी क्यों नहीं
इस जिगर में वो जिगरा भला था किधर.
जब कभी हमने पलकें उठायी भरी
हर तरफ बाँहें खोले दिखा आसमां
क्या पता था हमें इस खुली राह पर
मंजिलें ताकती होंगी हमको खड़ी.
रिश्तों की डोर होती है नाज़ुक बड़ी
आज़माइश से ही ये झटक जायेगी
क्या पता था हमें एक दिन डोर ये
पाँव की बेड़ियों में बदल जायेगी.
-आशीष तिवारी
Monday, October 12, 2009
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